मन की गति
वेदनुसार जीव भगवान से कहता है कि प्रभु ! मैं तो कुछ भी नहीं जानता कि वास्तव में मैं क्या हूँ, मेरा स्वरूप क्या है, क्योंकि मैं तो एक नन्हें अबोध बालक की तरह सदियों से मन के चक्कर में फंसा इधर-उधर विचरता हुआ धक्के खा रहा हूँ और शांति से कोसो दूर पड़ा तड़प रहा हूँ। मन की शक्ति है भी तो अद्भुत। वेद में कहा है कि कोई इन्द्रिय बिना मन के सहयोग के कोई भी छोटा बड़ा कार्य नहीं कर सकती। इसकी गति बड़ी विचित्र है। जब यह कुमार्ग पर चलता है तो इसके पतन का कुछ भी ठिकाना नहीं। यह ऐसे-ऐसे भयंकर उत्पात करता है कि जिनका चिन्तन मात्र ही आदमी को रोमांचित कर देता है। परन्तु यही मन सुमार्गगामी होता है तब मानव को बहुत ऊंची स्थिति प्राप्त करा देता है। यह मन ही तो है जो आदमी को शैतान से देवता अथवा देवता से शैतान बना देता है।
मन के वश में न होने के कारण ही तो रावण जैसे वेदों के विद्वान् महान पण्डित रसातल को पहुँच गए और इसी मन को वश में करके स्वामी दयानन्द, महात्मा हंसराज नानक आदि जैसे साधारण व्यक्ति भी उस महान प्रभु का सामीप्य प्राप्त करने में समर्थ हुए। अतः स्पष्ट है कि मन की स्थिति बहुत ऊँची है।
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यज्ञ द्वारा सुख की प्राप्ति ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेद विषय विचार अध्याय में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वर्णित किया है कि यज्ञ में जो भाप उठता है, वह वायु और वृष्टि के जल को निर्दोष और सुगन्धित करके सब जगत को सुखी करता है, इससे वह यज्ञ परोपकार के लिए होता है। महर्षि ने इस सम्बन्ध में ऐतरेय ब्राह्मण का प्रमाण देते हुए लिखा है...