महर्षि पतंजलि
निम्न स्तर से उभरने वाली तरंगे संकट पैदा करती हैं। महर्षि पतंजलि के अनुसार अनात्म तत्वों से जब आत्मतत्व स्वयं को जोड़कर देखता है, तो वह एक तरह से हवा में महल बनाकर, भ्रांति के स्वर्ग में वास, कर रहा होता है, जिस कारण आत्मा अहंकार, राग-द्वेष, विषय-भोग के संसार में लिप्त रहती है। यह बाहर से कितना भी सुंदर एवं सुखार क्यों न प्रतीत होता हो, लेकिन अपने वास्तविक स्वरूप का मूल कारण है, जिसका परिमार्जन अनावश्यक हो जाता है। इसके लिए हमने अपने दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ता है।
Waves emerging from low levels create distress. According to Maharishi Patanjali, when the Atmantattva sees himself associating himself with the non-atman elements, he is in a way building a palace in the air, dwelling in the heaven of illusion, due to which the soul is living in the world of ego, attachment-aversion, subject-objection. indulges in. No matter how beautiful and dry it may seem from outside, but it is the root cause of its true nature, whose rectification becomes unnecessary. For this we have to radically change our approach.
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यज्ञ द्वारा सुख की प्राप्ति ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेद विषय विचार अध्याय में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वर्णित किया है कि यज्ञ में जो भाप उठता है, वह वायु और वृष्टि के जल को निर्दोष और सुगन्धित करके सब जगत को सुखी करता है, इससे वह यज्ञ परोपकार के लिए होता है। महर्षि ने इस सम्बन्ध में ऐतरेय ब्राह्मण का प्रमाण देते हुए लिखा है...